प्राचीन पहित और कवि भारत के कितने ही स्थानों में दिट्नाग को भ्रमण करना पड़ा था। सभी कहीं वेत-युद्ध में प्रवृत्त हुए थे। जिस निर्दयता से वे अपने प्रतिपक्षी पर श्रारमण करते थे, प्रतिपक्षी भी उसी निर्दयता से उन पर पाकमण करता था । उनका जीवन इसी घात-प्रतिघात-इसी लड़ाई-झगडे में बीता। जिस मल्ल-युद्ध में वे प्रवृत्त हुप ये उसका अवसान उनके मरने पर भी नहुमा । जो ग्रंथ वे लिख गये है, उत्तर- काल में, अनेक पंडितों को उन सभी प्रयों के मत के खंडन के लिए कमर कसनी पड़ी। मेघदूत-काव्य में दिनाग का "स्थूलहस्त" परिहार करने के लिए महाकवि कालिदास फो मेघ को सावधान करना पड़ा। ब्राह्मण वंशीय नैयायिक उद्योतकर ने अपने न्याय-वार्तिक- प्रथ के श्रारंभ में दिड्नाग को "कुताकि" की पदवी से चिमूपित किया । सर्वदर्शनस्वतंत्र वाचस्पति मिश्र ने दिड्नाग को "मांत भदंत" कहकर उनको भ्रांति के निया रण को चेष्टा की। मलिनाथ ने दिमाग को "अद्रिकल्प" विशेषण से विभूषित किया। कुमारिलमह और पार्थसारथि मिथ ने दिड्नाग पर अवाघ बाण-वर्षा की। सुरेश्वराचार्य आदि वेदांतवेत्ताओं और प्रमाचद्र, विधानद शादि जैन दार्शनिकों ने दिमाग का मत लुप्त करने के लिए बहुत प्रयास किया। यहाँ तक कि पीछे-पीछे किसी-किसी बौद्ध नैयायिक को भी दिक्षनाग के ग्रंथों के किसी-किसी मत के
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