भवभूति
कालिदास ने अपने पृथक-पृथक प्रथों में लिखे ह घेसे भर.
भूति ने नहीं लि। र्यात भरभूति ने एक ही भार का
पिएपपया करके उसे अनेक स्थलों में पद्य-बन नदी किया।
यद हम भी मानते है। परंतु शास्त्रीजी के इस कदने से हम
सहमत नहीं कि "विचारों के विषय में, हम, यहाँ पर, एक
मान और फनना चाहते है। यह यह कि ये स्वयं कधि के
और फाप्यों का किंचिन्मान भी श्राधार उनको नहीं"
शास्त्रीजी का भागय मायद यह है कि भयभूनि के नाटकों
में उपरे पर्यवती परियों की छाया तक नहीं पाई जाती।
म्पयं शाररानी पोपक मा उदाहरण मिला है, जिसम
भाभूति-गत मारोगाधर ---
_ 'पार शर गिरयनि एशोमगम पापपूर." र नोप का मार र फालिदान-यन मेगन के "ग्गामातिपय प्रणय पिना धातुगरी. शितायाम्" म ग्लोर. का गाय पाप यहां पर शारीशी में मपतिकी गिणपो कानिहामको गुरु में पद गया पmm पीरिया और पाकि समाप में ममें शाशन मकर महापगे पनि सितारपा भनेर सोचोगदानु.