१६ प्राचीन पडित और कवि वस्तुजात औरपात्रों के क्रियाकलाप आदि से उस बात का पता लगता है। जिस समय भवभूति का प्रादुर्भाव हुश्रा उस समय, इस देश में, बौद्ध धर्म का हास हो रहा था। पष्ट शताब्दी में उद्योतकर, सप्तम शताब्दी में कुमारिल भट्ट और अष्टम शताब्दी में शकराचार्य ने बोद्ध धर्म को उच्छिन्न करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी । वैदिक धर्म के प्रतिपा दन और बौद्ध धर्म का सहार करने के लिये इन महात्माश्रो ने जो कुछ किया है वही भवभूति ने भी किया है। इन्होंने स्पष्ट रीति से बौद्ध धर्म का खडन किया है, परंतु भवभूति ने स्पष्ट कुछ नहीं कहा। अनेक स्थलों पर अपने नाटकों में वैदिक धर्म की श्रेष्ठता ओर चौद्ध धर्म की हीनता के उदाहरण दिसलाते हुए, दोनों प्रकार के धर्मावलवियों की दिनचर्या का चित्र खींचकर, भवभूति ने सब मम अभिनय देसनेवालों के सम्मुख उपस्थित कर दिया है, जिसका यही तात्पर्य है कि बैंटिक धर्म ग्राह्य और बौद्ध धर्म त्याज्य है। मालतीमाधव की प्रसिद्ध पात्री कामदको बौद्ध संन्या- सिनी थी। वह अपने श्राश्रम धर्म के विपरीत मालती और भाधन को विवाह-सून से वॉधने के बखेड़े में पड़ी थी। उनकी शिष्य सौदामिनी बोद्ध संप्रदाय का त्याग करके अघोरघंट और कपालमुडला के तात्रिक जाल में फंसी थी। ये तात्रिक पसे दुराचारी और नृशस थे कि अपनी
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