५० प्राचीन पडित और कवि दी हो गया। शेख मुहम्मद अत्तार नाम के प्रसिद्ध फकीर से उसने दर्शन शास्त्र सीखा। कुछ दिनों में हाफिज भी इन शेख साहब का अनुयायी हो गया । उस पर शाह के बजार हाजी कयामुद्दीन की चड़ी कृपा थी। उसने विशेष करक हाफिज ही के लिए एक कॉलेज खोला। उस कॉलेज में हाफिज कुरान पढ़ाने पर मुकर्रर हुया ! परतु हाफिज का स्वभाव बहुत ही उच्छ खल था । वह मद्यप भी था । उस वाहरी दिखाय दिलकुल पसद न था । वह कहता था श्रमीर और गरीब दोनों का ईश्वर एक ही है । उसके तिय मसजिद, मदिर और गिरजाघर तुल्य थे। इसलिए उसके साथी अध्यापकों तथा और और विद्वानों ने भी हाफिज के आचरण पर कटाक्ष करना प्रारंभ किया। हाफिज से भी मौन नहीं रहा गया। उसने भी अपनी कविता में उन लो की खूय दिल्लगी उड़ाई और उनकी अंध-धर्मभीरता, उनके दाभिक आचरण और उनके मिथ्या विश्वासों पर, मोका हाथ आते ही, बड़े ही मर्मभेदी व्यंग्य कहे । हाफिज को लोग कुछ-कुछ नास्तिक समझते थे। और और पातों के सिवा इसका पफ कारण यह भी था कि हाफिज ने मंसूर नाम के पहुंचे हुए फकीर को प्रशंसा में कविता की थी। यह फनीर अपने को "अन्ल-हन" (अहं ब्रह्मास्मि) कहता था। यही दुर्दशा करके उसे फाँसी दी गई थी, परंतु अत तक वह "अनल-हा" ही करता रहा।
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