६८ प्राचीन पंडित श्रोर कवि से पीड़ित थे। बोधिसत्त्वों ने उन्हें बौद्ध धर्म का प्रचार करने और उस धर्म में दृढ़ विश्वास रखने का उपदश दिया। इसके बाद वे अदृश्य हो गये। शीलभद्र काराग भी जाता रहा । बोधिसत्वों ने चीन से पानेवाले प्रवासा ह्वेनसाग को बौद्ध धर्म का मर्म सिखलाने की भी आशा दी। इसके तीन वर्ष वाद ह्वेनसांग बजासन तीर्थ (बुद्ध-गया) में पहुंचा । यह खवर सुनते ही शीलभद्र ने ४ "श्रमण उसे लेने भेजे। ह्वेनसांग ने इस आमत्रण को बड़े भक्तिभाव से स्वीकार किया। तीर्थाटन करते हुए वह नालंद पहुंचा। २०० श्रमणों ने नालंद के विश्वविद्यालय के फाटक पर श्राकर उसकी अगवानी की । एक सहस्र बौद्धों ने स्तुति पाठ किया । बड़े समारोह से ह्वेनसांग विश्वविद्यालय में लाया गया । जब वह सभामडप में पहुँचा तय उस एक श्रेष्ठ श्रासन दिया गया। वहाँ के प्रधान भिक्षु ने श्राशा , कि जब तक हेनसांग वहाँ रहे उसका वही श्रादर कि जाय जो एक भिक्ष या उपाध्याय का करना चाहिए । ११ देर विश्राम करने के बाद २० अध्यापकों ने ह्वेनसाग १ शीलभद्र के सम्मुख उपस्थित किया । उस समय शीलभद्र की उन १०६ वर्ष की थी। उनके सिर में एक भी चालन रह गया था। ये बिलकुल सल्याट हो गये थे । हेनसाग ने दंड-प्रणाम किया और शीलभद्र के पैरों को घड़ी भक्षित
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