प्राचीन पडित और कवि प्रकाश जय अमेठी के राजा हिम्मतसिंह की राजधानी में पहुंचा तव हिम्मतसिंह को भी उनके दर्शनों की उत्कठा हुई । सुखदेवजी अमेठी गये । वहाँ भी उनका खूब सम्मान टुया । तब से चे कुछ दिन डोडियासेरा और कुछ दिन अमेठी में रहने लगे। जो राजा या तरलुकेदार उनसे मिलता वह इनका शिष्य हुए विना न रहता । हिम्मतसिंह ने भी इनस गुरदीक्षा ली। जिस समय सुखदेवजी अमेठी में ये, एक माह्मण का लड़का मर गया । उस ब्राह्मण ने सुसदेवजी का माहात्म्य सुना था। इसलिए लड़के का निजीव शरीर लाकर सुखद जी के स्थान के सामने रख दिया और अत को उस शरा को वहीं छोड़ वह अपने घर चला आया। सुखदेवजी बर्ड सकट में पढ़े। बहुत सोच-विचार के अनतर उन्होंने देवा की स्तुति प्रारभ की, जिसका अंतिम पद्य यह था- भान तुही और लजा तुही तुही लक्ष्मी है सीतले मेरो गुसाइनि । श्रापनो के मोहिं जानती हो में सदा ही पगे रहो तेरे ही पायनि । जाहि निवाजै निहाल है जाइ सो जानत हों सब तेरे सुभाइनि । तेरो भितारी हो भीस दे मोहिं तू राधि ले वाल बड़ी ठकुराइनि ।
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