११२ प्राचीन पंडित और कवि इस प्रश्न को सुनकर हीरविजय सूरि ने पूर्वोक्त सिद्धांत कासडन कई श्लोकों में करके, अंत में यह कहा कि नतो इस संसार का कोई पैदा ही करनेवाला है और न कोई इसका नाश ही करनेवाला । इसमें ये जो अनेक प्रकार की विभि प्रतायें देख पड़ती है उनका कारण प्राणियों ही के प्राक्कन कर्म है । अतएव मेरी राय में फिनी त्रप्टा का अस्तित्व मानना बंध्या-पुत्र का अस्तिल मानने के समान है- कर्ता च हर्ता निजकर्मजन्यवैचित्यविश्वस्य न कश्चिदस्ति । बंध्यात्मजन्मेव तदस्ति भागोऽसन्नेव चित्ते प्रतिभासते तत् ॥ ___ यह सुनकर अबुलफल बहुत खुश हुश्रा-- इदं गदित्वा विरते मुनीन्द्रे शेरा. पुनर्वाचमिमामुवाच । विज्ञायते तद् वटुगा चाचि वीचीच तथ्येतरता तदुतौ ।। अर्थात्, आधुलफल ने यह कहा कि इस दशा में यही कहना पड़ता है कि हमारी धर्म-पुस्तकों में बहुत-सीतथ्येतर चाते है। यहाँ पर यह याद रखना चाहिए कि ससार के कर्तृत्व श्रादि के संबंध में हीरविजय का बतलाया हुया सिद्धात जैन-धर्म के अनुयायियों का सिद्धात है। श्रकवर को काम से फरसत होने पर, सूरि महोदय शाही रवार में घुलाये गये । वहाँ जाने पर क्या हुनासो जगर गुरु-काव्य के प्रणेता के एक श्लोक से अवगत कीजिए- चगा हो गुरुजीतिवाक्यचतुरो हस्ते निजं तत्कर कृत्या सुरिवरान्निनाय सदनान्तर्वनरुद्धाहणे।
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