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चतुर्थ सर्ग

वचन की रचना रस से भरी।
प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
उतरती न कभी चित से रही।
सरलता, अतिप्रीति, सुशोलता ॥१८॥

मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शेल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना॥१९॥

शार्दूलविक्रीड़ित छन्द
काले कुत्सित कीट का कुसुम मे कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कज कृति मे क्या है न कोई कमी।
पोरो मे कब ईख की विपुलता है ग्रथियो की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते अपटुता तू ने कहाँ की नहीं॥२०॥

द्रुतविलम्बित छन्द
कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता, बहु क्लान्त है॥२१॥

कुसुम सी सुप्रफुल्लित बालिका।
हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
वह मलीन सकल्मष हो गया।
प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से॥२२॥

सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुन्दर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से॥२३॥