पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१०७

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प्रियप्रवास

छविवती - दुहिता वृषभानु की ।
निपट थी जिस काल पयोमुखी ।
वह तभी ब्रज - भूप कुटुम्ब की ।
परम - कौतुक - पुत्तलिका रही ॥१२।।

यह अलौकिक - बालक-बालिका ।
जब हुए कल-क्रीडन-योग्य थे ।
परम - तन्मय हो बहु प्रेम से ।
तव परस्पर थे मिल खेलते ।।१३।।‌

कलित - क्रीड़न से इनके कभी ।
ललित हो उठना गृह - नन्द का ।
उमड़ सी पडती विधी कभी ।
वर - निकेतन मे वृषभानु के ।।१४।‌।

जब कभी कल -क्रीडन - सुत्र से ।
चरण - नृपुर श्री कटि-किंकिगी ।
सदन मे बजती अति - मंजु थी ।
किलकनी तब थी कल-वादिता ॥१५॥

युगल का वय माथ सनेह भी ।
निपट-नीरवता सह था बढ़ा ।
फिर यही वर - बाल सनेह ही ।
प्रणय में परिवर्तित था हुआ ॥१६॥

बलवती कुछ थी इतनी हुई ।
कुॅबरि - प्रेम - लता उर - भूमि में ।
शयन भोजन क्या, सब कालही ।
यह बनी रहती छवि - मत्त थी ।।१७।।