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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/११४

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पंचम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।
शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥

फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।
प्यारी-प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।
सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।
कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली॥2॥

प्रात: शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।
मीठा-मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।
फूले-फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।
लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥

चिन्ता की सी कुटिल उठतीं अंक में जो तरंगें।
वे थीं मानो प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।
धीरे-धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।
शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी॥4॥