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प्रियप्रवास

सखि! मुख अब तारे क्यो छिपाने लगे है ।
वह दुख लखने की ताव क्या है न लाते ।
परम - विफल होके आपदा टालने मे ।
बह मुख अपना हैं लाज से या छिपात ।।४८॥

क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है ।
वह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का ।
विहग विकल हो हो वोलने क्यो लगे है ।
सखि! सकल दिशा मे आग सीक्यो लगी है।।४९।।

सब समझ गई मै काल की क्रूरता को ।
पल पल वह मेरा है कलेजा कॅपाता ।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला । -
सकल-व्रज-धरा को फूँक देता जलाता ॥५०॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
हा! हा! ऑखो मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची ।
बाते मेरी कमलिनिपते । कान की भी न तू ने ।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उजाला ।
तेरा होना उदय व्रज मे तो अँधेरा करेगा ।।५१।।

नाना बाते दुख शमन को प्यार से थी सुनाती ।
धीरे धीरे नयन - जल थी पोछती राधिका का ।
हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यो कभी थी सुनाती ।
रोती रोती विकल ललिता, आप होती कभी थी ॥५२॥

सूखा जाता कमल - मुख था होठ नीला हुआ था ।
दोनो ऑखे विपुल जल मे डूबती जा रही थी ।
शंकाये थी विकल करती कॉपता था कलेजा ।
खिन्ना दीना परम - मलिना उन्मना राधिका थी ।।५२।।

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