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प्रियप्रवास

पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें ।
थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी ।
हा हा! शब्दो सहित इतना फूट के लोग रोये ।
हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की ॥४१॥

आवेगो के सहित बढ़ता देख संताप - सिधु ।
धीरे धीरे ब्रज - नृपति से खिन्न अक्रूर बोले ।
देखा जाता व्रज दुख नही शोक है पाता ।
आज्ञा देवे जननि पग छू यान पै श्याम बैठे ॥४२॥

आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर वाते ।
जेठे भ्राता सहित जननी - पास गोपाल आये ।
छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।
जो आज्ञा हो जननि अव तो यान पै बैठ जाऊँ ।।४३।।

दोनों प्यारे कुँवरवर के यो विदा मॉगते ही ।
रोके ऑसू जननि ढ्ढग में एक ही साथ आये ।
धीरे बोली परम दुख से जीवनाधार-जाओ ।
दोनो भैया विधुमुख हमे लौट आके दिखाओ ॥४४।।

धीरे धीरे सु - पवन बहे स्निग्ध हो अंशुमाली ।
प्यारी छाया विटप वितरे शान्ति फैले वनो मे ।
बाधायें हो शमन पथ की दूर हो आपदाये ।
यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ ॥४५॥

ले के माता- चरणरज को श्याम औ राम दोनो ।
आये विप्रो निकट उन के पॉव की वन्दना की ।
भाई - बन्दो सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ो को ।
पीछे बैठे विशद रथ में वोध दे के सबो को ।।४६।।