पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१४३

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प्रियप्रवास

पाँवों को वे सँभल बल के साथ ही थे उठाते ।
तो भी वे थे न उठ सकते हो गये थे मनो के ।
मानो यो वै गृह गमन से नन्द को रोकते थे ।
संक्षुब्धा हो सवल वहती थी जहाँ शोक-धारा ॥५॥

यानों से हो पृथक तज के संग भी साथियो का ।
थोड़े लोगो सहित गृह की ओर वे आ रहे थे ।
विक्षिप्तो सा वदन उनका आज जो देख लेता ।
हो जाता था बहु व्यथित औ था महा कष्ट पाता ॥६॥

ऑसू लाते कृशित हग से फूटती थी निराशा ।
छाई जाती बदन पर भी शोक की कालिमा थी ।
सीधे जो थे न पग पडते भूमि में वे बताते ।
चिन्ता द्वारा चलित उनके चित्त की वेदनाय ॥७॥

भादोवाली भयद रजनी सूचि - भेद्या अमा की ।
ज्यो होती है परम असिता छा गये मेघ-माला ।
त्योही सारे-ब्रज-सदन का हो गया शोक गाढा ।
तातो वाले व्रज नृपति को देख आता अकेले ॥८॥

एकाकी ही श्रवण करके कंत को गेह आता ।
दौडी द्वारे जननि हरि की क्षिप्त की भॉति आई ।
वोही आये ब्रज अधिप भी सामने शोक-मग्न ।
दोनो ही के हृदयतल की वदना थी समाना ॥९॥

आते ही वे निपतित हुई छिन्न मृला लता सी ।
पॉवों के सन्निकट पति के हो महा सिद्यमाना ।
संज्ञा आई फिर जब उन्हें यन द्वारा जनो के ।
रो रो हो हो बिकल पनि से यो व्यथा साथ वाली ॥१०॥