पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१६२

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अष्टम सर्ग

सारी बाते दुखित वनिता की भरी दुख - गाथा ।
धीरे धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा ।
हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता - त्याग रोई ।
पीछे आहे भर विकल हो यो व्यथा-साथ बोली ॥५४॥

द्रुतविलम्बित छन्द
निकल के निज सुन्दर सद्म से ।
जब लगे व्रज मे हरि घूमने ।
जब लगी करने अनुरजिता ।
स्वपथ को पद पकज लालिमा ।।५५।।

तब हुई मुदिता शिशु - मण्डली ।
पुर - वधु सुखिता बहु हर्पिता ।
विविध कौतुक और विनोद की ।
विपुलता ब्रज - मडल मे हुई ।।५६।।

पहुँचते जब थे गृह मे किसी ।
ब्रज - लला हॅसते मृदु बोलते ।
ग्रहण थी करती अति - चाव से ।
तब उन्हें सब सम-निवासिनी ॥५७।।

मधुर भाषण से गृह - बालिका ।
अति समादर थी करती सदा ।
सरस माग्वन श्री दधि दान से ।
मुदित थी करती गृह -स्वामिनी ।।५८।।

कमल लोचन भी कल उक्ति से ।
सकल को करते अति मुग्ध थे ।
कलित क्रीडन नूपुर नाद से ।
भवन भी बनता अति भव्य था ॥५९।।