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प्रियप्रवास

स- बलगम से यावक मण्डली ।
बिहरते बहु मंदिर में रहें ।
बिचरते हरि थे बाले कभी ।
रुचिर वस्त्र विभूषण मसे सजे ।।६०।।

मन्दकान्ता छन्द
ऐसे सारी मज सज अधिन के एक ही लाहिने को ।
होना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला ।
हाँ! कार्यों घोड़ा गरल उगले विनाश कारी रसो में ।
कैसे छींटा सरस कुसुमोधान में कंटकों को ।।६१।।

विनाशकारी - दलित - गलियों लोभनीबालयो में ।
क्रीड़ाकारी फलीत कितने फेजिवाले थल्लो में ।
कैसे भूला ब्रज अवनि को फूल को भानुजा के ।
क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाढिले का न होगा ।।३२।।

क्या देखूँगी न अब बढ़ता इंदु को भानुजा के ।
क्या फूलेगा न यह गृह में पद्म सौंदर्यशादी ।
मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे ।
क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा ।।३३।।


हाथों में ले गले मधुर दधि को दीर्घ उन्कण्ठना से ।
घटों बैठी कुंवर - पथ जी आज भी देखती हैं ।
हां! क्या ऐसी सरल-हदया सघ की स्वामिनी की ।
वांछा होगी न अब सकला श्याम को देख ऑखों ।।३४॥

भोली भाली सुल्ब सदन की सुन्दरी वालिफायें ।
जो प्यार के फल कथन की प्राज भी उत्सुका है ।
क्रीड़ाकाक्षी सफल शिशु जो आज भी है स-आशा ।
हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिद्ध होगी ।।३५।।