पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११
नवम सर्ग

कही गठीले - अरने अनेक थे।
स - शंक भूरे - शशकादि थे कही।
बड़े - घने निर्जन - वन्य - भूमि में।
विचित्र - चीते चल - चक्षु थे कही ।।१०२॥

सुहावने पीवर - ग्रीव साहसी।
प्रमत्त - गामी पृथुलांग - गौरवी ।
जीवनस्थली मध्य विशाल - वैल थे।
बड़े - बली उन्नत - वक्ष विक्रमी ।।१०३।।

दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु - आनना सौम्य - हगी समोदरा ।
बनान्त मे थी सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा - सरलातिसुन्दरी ।।१०४॥

अतीव - प्यारे मृदुता - सुमूति से।
नितान्त - भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त मे थे बहु वत्स कूदते ।
लुभावने कोमल - काय कौतुकी ॥१०५।।

वसन्ततिलका छन्द
जो राज - पंथ वन - भूतल मे बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी ।।१०६।।

वशस्थ छन्द
परन्तु वे पादप मे प्रसून मे ।
फलो दुलो वेलि - लता समूह मे ।
सरोवरो मे सरि मे सु - मेरु मे।
खगो मृगो मे वन मे निकुञ्ज में ।।१०७॥