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दशम सर्ग

मैं ही होता चकित न रहा देख कार्यावली को ।
जो प्यारे के चरित लखता, मुग्ध होता वही था ।
मै जैसा ही अति-सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा ।
वैसा ही है दुखित अब मैं काल - कौतूहलो से ॥१४॥

क्यो प्यारे ने सदय वन के डूबने से बचाया ।
जो यो गाढ़े - विरह - दुख के सिन्धु मे था डुवोना ।
तो यत्नो से उरग- मुख के मध्य से क्यो निकाला ।
चिन्ताओ से प्रसित यदि मै आज यों हो रहा हूँ ॥९५।।

वंशस्थ छन्द
निशान्त देखे नभ स्वेत हो गया ।
तथापि पूरी न व्यथा - कथा हुई ।
परन्तु फैली अवलोक लालिमा ।
स - नन्द, ऊधो उठ सद्म से गये ।।९६।।

द्रुतविलम्बित छन्द
विवुध ऊधव के गृह - त्याग से।
परि - समाप्त हुई दुख की कथा।
पर सदा वह अंकित सी रही।
हृदय - मंदिर मे हरि - मित्र के ॥९७

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