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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२१०

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एकादश सर्ग

फिर बहु मृदुता से स्नेह से धीरता से।
उन स-हृदय गोपो मे बड़ा-वृद्ध जो था।
वह ब्रज-धन प्यारे-बंधु को मुग्ध-सा हो।
निज सु-ललित बातो को सुनाने लगा यों॥५॥

वशस्थ छन्द
प्रसून यो ही न मिलिन्द वृन्द को।
विमोहता औ करता प्रलुब्ध है।
वरंच प्यारा उसका सु-गंध ही।
उसे बनाता बहु-प्रीति-पात्र है॥६॥

विचित्र ऐसे गुण हैं ब्रजेन्दु के।
स्वभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
निबद्ध सी है जिनमे नितान्त ही।
ब्रजानुरागीजन की विमुग्धता॥७॥

स्वरूप होता जिसका न भव्य है।
न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ हैं।
मिली उसे भी भव-प्रीति सर्वदा।
प्रभूत प्यारे गुण के प्रभाव से॥८॥

अपूर्व जैसा धन-श्याम-रूप है।
तथैव वाणी-उनकी रसाल है।
निकेत वे है गुण के, विनीत है।
विशेष होगी उनमे न प्रीति क्यो॥९॥

सरोज है दिव्य-सुगंध से भरा।
नृलोक मे सौरभवान स्वर्ण है।
सु-पुष्प से सज्जित पारिजात है।
मयंक है श्याम बिना कलंक का॥१०॥