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प्रियप्रवास

शिर पर उनके है राजता छत्र - न्यारा ।
सु - चमर दुलते है, पाट है रत्न शोभी ।
परिकर - शतशः है वस्त्र औ वेशवाले ।
विरचित नभ - चुम्बी सद्म है स्वर्ण - द्वारा ॥१०८॥

इन सब विभवो की न्यूनता थी न यॉ भी ।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे। ।
यह हरित - तृणो से शोभिता भूमि रम्या ।
प्रिय - तर उनको थी स्वर्ण - पर्यक से भी ॥१०९।।

यह अनुपम - नीला - व्योम प्यारा उन्हे था ।
अतुलित छविवाले चारु - चन्द्रातपो से ।
यह कलित निकुंजे थी उन्हे भरि - प्यारी ।
मयहृदय - विमोही - दिव्य - प्रासाद से भी ॥११०।।

समधिक मणि - मोती आदि से चाहते थे ।
विकसित - कुसुमो को मोहिनी मूर्ति मेरे ।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण आभूषणो से ।
वह सुललित पुष्पो के अलंकार ही को ॥१११॥

अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का ।
अहह वह नही तो क्यो सभी भूल जाते ।
यह नित नव - कुंजे भमि शोभा-निधाना ।
प्रति - दिवस उन्हे तो क्यो नही याद आती ॥११२॥

सुन कर वह प्राय. गोप के बालको से ।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट - गाथा ।
वन तज उन गेहो मध्य थे शीघ्र जाते ।
नियमन करने को सर्ग - संभूत वाधा ॥११३॥