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पञ्चदश सर्ग

यह समझ प्रसूनो पास में आज आई।
क्षिति - तल पर है ए मूर्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखो मे मग्न होते म्वयं है ।।५९।।

कतिपय - कुसुमा को म्लान होते विलोका।
कतिपय वह कीटो के पड़े पेच मे है।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय - सुमनो की पंखड़ी भू पड़ी है ।।६०।।

तदपि इन सबो मे ऐठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनो को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसीकी व्यथा से ।
बहु भव - जनितो की वृत्ति ही ईद्दशी है ॥६१।।

अयि अलि तुझमे भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति - चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है।
थिर तनक न होता है किसी पुप्प मे भी ॥६२॥

यदि तज कर के तू गूॅजना धैर्य - द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भ में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो ।।६३।।

अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी करेगी।
कुछ कार उनसे, है चित्त में मोद होता।
शिनि पर जिनकी ? श्यामली - मूर्ति पाती ।।६४।।