निवास होगा जिस ओर सूर्य का ।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू ।
विलोकती है जिस चाव से उसे ।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु - आनना ।।५३।।
अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय, भी ।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी ।
विलोकती थी जब हो विनोदिता ।
मुकुन्द के मंजु - मुखारविन्द को ॥५४॥
परन्तु मेरे अब वे न वार, है ।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता ।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू ।
विभावरो मे बनती मलीन है ॥५५॥
निशान्त मे तू प्रिय स्वीय कान्त से ।
पुनः सदा है मिलती प्रफुल्ल हो ।
परन्तु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये ।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की ॥५६।।
नृलोक मे है वह भाग्य - शालिनी ।
सुखी बने जो विपदावसान मे ।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी ।
न अन्तं होवे जिसकी विपत्ति का ॥५७।।
मालिनी छन्द
कुवलय - कुल में से तो अभी तू कढ़ा है ।
बहु - विकसित प्यारे - पुष्प मे भी रमा है ।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की ।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें ॥५८।।
पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२९५
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२४
प्रियप्रवास