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प्रियप्रवास

परन्तु त तो अव भी उड़ी नहीं ।
प्रिये पिकी क्या मथुरा , जायगी ?
न जा, वहाँ है न पधारना भला ।
उलाहना है सुनना जहाँ मना ।।१०१।।

वसंततिलका छन्द
पा के तुझे परम - पूत - पदार्थ पाया ।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी हगो मे ।
होती विवर्द्धित घटी उर - वेदनाये ।
ऐ पद्म - तुल्य पद - पावन चिह्न प्यारा ॥१०२॥

कैसे वहे न दृग से नित वारि - धारा ।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ ।
त भी मिला न मुझको ब्रज मे कही था ।
कैसे प्रमोद अ - प्रमोदित प्राण पावे ॥१०३॥

माथे चढ़ा मुदित हो उर मे लगाऊँ ।
है चित्त चाह सु - विभूति उसे बनाऊँ ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं ।
सानन्द अंजित सुरंजित - लोचनो मे ॥१०४।।

लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया ।
तीसी - प्रसून - सम श्यामलता सलोनी ।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी ।
तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है ।।१०५।।

संयोग से, पृथक हो पद - कंज से तू ।
जैसे अचेत अवनी - तल मे पड़ा है ।
त्योही मुकुन्द - पद - पंकज से जुदा हो ।
मै भी अचिन्तित - अचेतनतामयी हूँ ॥१०६॥