लेखको ने इस विषय में अमनोनिवेश क्यो किया ? यदि उन्होंने मनोनिवेश नहीं भी किया तो एक वास्तव और युक्तिसंगत बात के ग्रहण करने में इस समय संकोच क्या ? और यदि उसके ग्रहण में संकोच उचित नहीं, तो केवल पद्म में ही वे क्यो ग्रहण किये जावे, गद्य में भी क्यो न गृहीत हो? इन प्रश्नो के उत्तर में अधिक न लिखकर मैं केवल इतना ही कहूँगा कि इन वर्गों, शब्द-खडों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरो को भाषाव्याकरण कर्त्ताओ ने स्वर-संयुक्त माना है, हलन्तवत् नही । क्योकि हलन्तवत् क्या? कोई व्यञ्जन या तो स्वर-संयुक्त होगा या हलन्त, और जब उन्होने उनको स्वर-संयुक्त मान कर ही उनके सब रूप बनाये है, तो अब उनके विषय मे एक नवीन पद्धति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, क्योकि व्याकरण उच्चारण के अनुकूल ही बनता है, उसके प्रतिकूल नहीं। समय पाकर उच्चारण में भिन्नता अवश्य हो जाती है और उस समय व्याकरण भी बदलता है, परन्तु इन वर्णों, शब्द-खंडो और धातु-चिह्नो के प्रथम के अक्षर के लिये अभी वे दिन नहीं आये है। सोचिये, यदि इसको, जिसको इत्यादि को इस्को, जिस्को लिखे और करना, धरना, चलना इत्यादि को कर्ना, धर्ना, चल्ना इत्यादि लिखने लगे, तो हिन्दी भाषा में कितना बड़ा परिवर्तन उपस्थित होगा।
समादरणीय पाठक जी का एक लेख खड़ी बोली की कविता पर प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यविवरण मे मुद्रित हुआ है, उसके पृष्ठ ३२ मे एक स्थान पर उन्होने इस विषय पर विचार करते हुए ऐसे शब्दो के विषय मे यह लिखा है——
“भाषा के शील संरक्षण की दृष्टि से पद्य लिखने में आवश्य- कतानुसार बोलने की रीति अवलम्बन करने से कोई आपत्ति तो नहीं उपस्थित होती।"