पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५४ )


है वह न रहता और भदापन एवं अमनोहारित्व आ जाता। इस समय जितना ‘रमणीय' शब्द श्रुतिसुखद और प्यारा ज्ञात होता है उतना रमनीय नहीं, जो ‘शोभा' लिखने में सौन्दर्य और समादर है वह ‘सोभा' लिखने में नही । अतएव कोई कारण नहीं था कि मैं सामयिक प्रवृत्ति और प्रवाह पर दृष्टि न रख कर एक स्वतन्त्र पथ ग्रहण करता । किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है——

“दधि मधुर मधु मधुर द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरैव ।
तस्य तदेवहि मधुर यस्य मनोवाति यत्र सलग्नम् ।।"

इस ग्रन्थ में आप कही कही बहु वचन में भी यह और वह का प्रयोग देखेगे, इसी प्रकार कहीं कही यहाँ के स्थान पर.यॉ, वहाँ के स्थान पर वॉ, नहीं के स्थान पर न और वह के स्थान पर सो का प्रयोग भी आप को मिलेगा। उर्दू के कवि एक वचन और बहु वचन दोनों में यह और वह लिखते हैं, और यहाँ और वहॉ के स्थान पर प्राय यॉ और वॉ का प्रयोग करते है, परन्तु मैंने ऐसा संकीर्ण स्थलो पर ही किया है। हिन्दी भाषा के आधुनिक पद्य-लेखकों को भी ऐसा करते देखा जाता है। मेरा विचार है कि वहु वचन में ए और वे का प्रयोग ही उत्तम है और इसी प्रकार यहाँ और वहाँ लिखा जाना ही यथाशक्य अच्छा है, अन्यथा चरण सकीर्ण स्थलो पर अनुचित नही, परन्तु वही तक वह ग्राह्य है जहाँ तक कि मर्यादित हो। नही और वह के स्थान पर न और सो के विषय में भी मेरा यही विचार है। उक्त शब्दो के व्यवहार के उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य और गद्य नीचे लिखे जाते है——

“जिन लोगो ने इस काम में महारत पैदा की है, वह लफजो को देखकर साफ पहचान लेते हैं"

“ख्यालात का मरतबा जबान से अव्वल है, लेकिन जब तक वह दिल में है, माँ के पेट में अधूरे बच्चे हैं"