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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/६३

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जटिल मार्ग मे दो-चार डग भी उचित रीत्या चल सकें। शब्ददोष, वाक्य-दोष, अर्थ-दोष और रस-दोप इतने गहन हैं और इतने सूक्ष्म इसके विचार एवं विभेद हैं कि प्रथम तो उनमे यथार्थ गति होना असम्भव है, और यदि गति हो जावे, तो उस पर दृष्टि रख कर काव्य करना नितान्त दुस्तर है। यह धुरन्धर और प्रगल्म विद्वानो की बात है, मुझ-से अवोधोकी तो इस पथ मे कोई गणना ही नही "जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही। कहहु तूल केहि लेखे माही"। श्रद्धेय स्वर्गीय पण्डित सुधाकर द्विवेदी, प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य विवरण के पृष्ठ ३७ मे लिखते है——

“हिन्दी और सस्कृत काव्यो मे जितने भेद हैं, उन सव पर ध्यान देकर जो काव्य बनाया जावे तो शायद एकाध दोहा या श्लोक काव्य लक्षण से निर्दोष ठहरे।"

जव यह अवस्था है, तो मुझसे अल्पज्ञ का अपनी साधारण कविता को निर्दोप सिद्ध करने की चेष्टा करना मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। अतएव मेरी इन कतिपय पंक्तियो को पढ़ कर यह न समझना चाहिये कि मैने इनको लिख कर अपने ग्रन्थ को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा की है। प्रथम तो अपना दोष अपने को सूझता नहीं, दूसरे कवि-कर्म महा कठिन, ऐसीअवस्था मे यदि कोई अलौकिक प्रतिभाशाली विद्वान भी ऐसी चेष्टा करे तो उसे उपहासास्पद होना पड़ेगा। मुझ-से जानलव - दुर्विदग्ध की तो कुछ वात ही नहीं।

——विनीत

‘हरिऔध'