पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/८०

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द्वितीय सर्ग

सदन-सम्मुख के कल ज्योति से ।
ज्वलित थे जितने वर-बैठके ।
पुरुष-जाति वहाँ समवेत हो ।
सुगुण-वर्णन में अनुरक्त थी ॥५॥

रमणियाँ सब ले गृह–बालिका ।
पुरुष लेकर बालक – मंडली ।
कथन थे करते कल – कंठ से ।
ब्रज – विभूषण की विरदावली ॥६॥

सब पड़ोस कहीं समवेत था ।
सदन के सब थे इकठे कहीं ।
मिलित थे नरनारि ़ हुए ।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति की॥७॥

रसवती रसना बल से कहीं ।
कथित थी कथनीय गुणावली ।
मधुर राग सधे स्वर ताल में ।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं ॥८॥

बज रहे मृदु मंद मृदंग थे ।
ध्वनित हो उठता करताल था ।
सरस वादन से वर बीन के ।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा ॥९॥

प्रति निकेतन से कल - नाद की ।
निकलती लहरी इस काल थी ।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी ।
ध्वनित सा कुल गोकुल-ग्राम था ।१०॥