सब व्यर्थ हैं, और भी उद्दीपक हैं, अत: इसे नायक के दर्शन
ही करायो क्योंकि श्राका जला भाग ही से अच्छा होता है।
भावार्थ -सरल और स्पष्ट है।
१६-तप्त वर्णन)
मूल-रिपु प्रताप, दुर्बचन, तप. तप्त बिरह संताप ।
सूरज, आशि, बजागि, दुख, तृष्णा, पाप, बिलाप ॥३६॥
शब्दार्थ-तप-तपस्या ! बजागि- ( वज्राग्नि) बिजली की
अग्नि ।
(यथा)
मूल-केशोदास नींद, भूख, प्यास, उपहास त्रास,
दुख को निवास विष मुखहू गझौ परे ।
बायु को बहन, बनदावा को दहन, बड़ी
बाड़वा अनल ज्वाल जाल में रह्यौ परै।
जीरन जनम जात जोर जुर घोर, परि-
पूरण प्रगट परिताप क्यों कयौ परे ।
सहिहौं तपन ताप, परको प्रताप, रघु-
बीर को विरह बीर मोपै न सयौ परे ॥४०॥
शब्दार्थ-उपहासत्रास-निन्दायुक्त हँसी का भय, बदनामीका
डर गयौ पर - ग्रहण किया जा सकता है। रह्योपर= रहा
जा सकता है। जीरन..... घोर - जीवन भर रहनेवाला बड़े
ज़ोर का जीर्णज्वर । परिपूरण......कह्यौपरै-जिसकी प्रत्यक्ष
और पूर्ण गर्मी का प्रभाव कहा नहीं जा सकता । तपन =
सूर्य । पर को प्रताप-शत्रु का प्रताप ।
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छठाँ प्रभाव