पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१८१

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आठवाँ प्रभाव केशोदास आस पास भँवर मैंवत जल- केलि में जलजमुखी जलन सी सोहिये ॥३७॥ (नोट)-टीका के लिये देखिये केशवकौमुदी, प्रकाश ३२ छंद नं०३७॥ (बिरह वर्णन) मूल- खास. निसा, चिंता बढ़े, रुदन परेखे यात । कारे, पीरे, होत कृश, ताते सीरे, गात ॥ ३८॥ शब्दार्थ-निसा चिता बढ़े-बिरह में रात्रि भी बड़ी जान पड़ती और चिंता तो बढ़ती ही है। परेखे बात = बात भी अरमान भरी होती है। ताते = वार्म। सीरे = ठंडे। गात= शरीर के अंग। मूल-भूख,प्यास, सुधि बुधि घटै, सुख, निद्रा, दुति अंग । दुखद होत हैं सुखद सब, केशव विरह प्रसंग ॥३॥ (नोट)-चूंकि बिरह चार प्रकार का होता है, अत यहाँ बिरह के चार उदाहरण दिये गये हैं। (मान विरह वर्णन) मूल -बार बार बरजी मैं सारस सरस मुखी, आरसी लै देखि मुख, या रस में बोरिहे। सोभा के निहोरे तो निहारति न नेक हू तू, हारी हैं निहोरि सब कहा केहू खोरिहै ।। सुख को निहोरो जो न मान्यो सो भली करीन, केशोराय की सौं तोहि जो ऽव मान मोरिहै।