पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१८८

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आठवा प्रभाव समय के दांतों की झलक और शरीरों की कौति तथा आभू- षणों की चमक दसक अपार सी जान पड़ती थी। फूलों की छटा, ( देवताओं से छाये हुए ) आकाश की छवि, राजछत्रों की छबि उस समय प्रकाशित हो रही थी। स्वयंबर में श्री सीता जी अति शोभित हैं, बीच में खड़ी सीता का मुख चंद्रमा सम है और यह उपर्युक्त समस्त प्रभा परिवेष के समान है (ऐसा जान तड़ता था)। (सुरति वर्णन) मूल सुरति सात्विकी भाव भनि, मनित रुनित मंजीर । हाव, भाव, वहि अंत रति, अलज सलज्ज शरीर ॥४६।। शब्दार्थ-सुरति = कामयुक्त चित्त से उत्पन्न दाम्पत्तिक प्रेम । सात्विकी भाव भणि-सुरति में सात्विक भावों को कहना ही चाहिये । मनित शब्दादि (जैसे सीत्कार वा हां, नाही, हूं इत्यादि ) रनित मंजीर=नूरों का बजला । हाव- विशेष प्रकार की चेष्टाएं वा क्रियाएं जैसे लीला, बिलास, कुट्टसित इत्यादि । भावसात्विक भाव जैसे स्वेद कंप रोमांचादि । अहिरति-आलिंगन, चुचन, स्पर्श, मर्दन, नखछत रदनच्छत, श्रधरपान । अंतारति = कोकशास्त्र के अनुसार विविध श्रासनों से दम्पति समागम (देखो रसिक प्रिया प्रकाश ३ छंद ०४१, ४२)। अलजलजारहित । भावार्थ-सुरति वर्णन करते समय, सत्विकी भावों का, सीत्कारादि शब्द, तथा नूपुर शब्द, तथा हाव, मात्र, वाहिः रति, अन्तर्रति, तथा प्रशारीरिक लज्जा और निर्लजता का वर्णन करना चाहिये।