पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२२५

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दसवाँ प्रभाव चाहिये। रति सिखई-प्रीति ने सिखाई है। सुख-साख मैं (सिखई शब्द का किया विशेषण है ) अत्यंत आनन्द के समय में। घर-विरहिनि = पति से वियुक्त, पति होना । सुनि सुखद = हे सुखद नायक : सुनिये । सुखद सिख सीखि- यत- यह सुखद शिक्षा प्रापको सीख लेनी चाहिये । रति सिखई सुख-साख में जो शिक्षा प्रीति ने श्शानंद के समय में सिखाई है ( जिसका अनुभव मैने संयोग समय में किया है ) भावार्थ-वैशाख में श्राकाश और पृथ्वो सुगंध से बासित होते हैं। मंदगति से वायु बहती है क्योंकि उसका शरीर पुष्प मकरंद से लदा हुअा होता है (मकरंद के बोझ से पवन वेग से नहीं चल सकता )। सब दिशायें सुशोभित लगती हैं, और प्रत्येक दिशा-विभाग उत्तम पराग से परिपूर्ण रहता है। गंध ही के कारण भौरे और प्रवासी नर अंधे और वाचले हो जाते हैं (मद से मस्त होकर कामातुर हो उठते हैं )। अतः हे सुखद ! यह सुखद शिक्षा प्रापको सोख लेनी चाहिये जो प्रीति ने मुझे श्रानंद के समय में सिखाई है (संयोग समय में जो मैं ने अनुभव किया है ) कि पति वियो- गिनी नारी को वैशाख मास में काम के बाय विशेष रूप से लगते हैं। श्रतः बैशाख में प्रापका विदेश गमन उचित नहीं। (ज्येष्ठ वर्णन) मूल-एक भूत भय होत भूत, भजि पंचभूत भ्रम । अनिल, अंबु, आकाश, अवनि इवै जात श्रामि सम ॥ पंथ थकित, मद मुकित सुखित सर सिंधुर जोवत । काकोदर करकोष, उदर तर केहरि सवित।