पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३६०

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सौदहया प्रभाव दिया थी ! फल तो भूलकर भी नहीं सूबते; उनका फूल सा शरीर कुम्हिलाता जाता है, न पान खाते हैं, न किसी से बात करते हैं। हे चंद्रमुखी! चन्द्रमा को तेरा मुख समझ मार चकोर के समान उसी के विष की ओर देखा करते हैं। ( व्याख्या )-मुख के भ्रम में चंद्रमा को ही मुख समझना,यही मोहोपमा है। इसी को अब भ्रम वा भ्रांति अलंकार मानते हैं। ९-(नियमोपमा) भूल-एकै सम जहँ बरनिये, मन क्रम बेचन विशेष । केशवदास प्रकास बस, नियमोपमा सु लेख ॥ २१ ॥ भावार्थ-जहां किसी उपमेय के अन्य उपमान का निरादर करके किसी एकही उपमान के तुल्य ठहरा जिसपर कहनेवाले का मनकर्म वचन से विशेष प्रेम हो। इस प्रकार के प्रकाशन से वह उपमा एक प्रकार नियमित (परिमिति ) हो जाती है, अत: उसे नियमोपमा कहते हैं। (यथा) फूल- न-कलित कलंककेतु, केतु अरि, सेत गात, भोग योग को अयोग, रोग ही को थल सो। पूनोही को पूरन पै आन दिन उनो अनो, छिन छिन छीन छबि, छीलर के जल सो! चंद सा जु बरनत रामचंद की दुहाई, सोई मतिमंद कवि केशव मुसल सो 1 सुंदर सुबास अरु कोमल अमल अति, सीता जू को मुख साख ! केवल कमल सो रक्षा