पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३७७

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पंद्रहवाँ प्रभाव ३७३ (यमकभेद कथन) मूल--अव्ययेत सब्ययेत पुनि, यमक बरन दुइ देत । अब्ययेत बिनु अंतरहि, अंतर सो सब्ययेत ।।४।। भावार्थ-य -यमक के दो भेद हैं । जहां पदों में अन्तर न हो (सरे हुए श्रा) वहां अव्ययेत जानो और जहां पदों में अंतर हो (बीच में अन्य पद आजाय) वहाँ सब्ययेत जानो। ऊपर का उदाहरण अव्ययेत है। क्योंकि सजनी सजनी और पीय पीय शब्द सटे हुए हैं। नीचे के उदाहरण नं०१७ तक अव्य- येत यसक हैं। (अव्ययेतान्तर द्वितीय पद यमक) मूल-मान करति सखि कौनसों, हरि तू हारे तू आहि । मान भेद को मूल है, ताहि दोखे चित चाहि ॥ ५ ॥ (व्याख्या) इस दोहे के दूसरे चरण में 'हरितू हरितू' में अव्ययेत यमक है। भावार्थ-हे सखी ! तू मान किससे करती है. तू तो हरि (कृष्ण ) ही है अर्थात् तुझ और कृष्ण में कुछ भेद नहीं है, अतः तू पाहि (विरह दुःख जनित उच्च स्वांस) हरण कर ( तू क्रोध से और कृष्ण तेरे विरह से जो ऊंची सांसे भरते हैं उन्हें रोक-मान छोड़ उनसे मिल) तू चित्त से विचार कर, मान ही भेद की जड़ है-मान छोड़ दे तो तू और कृष्ण एक ही हैं। (तृतीय पाद यमक) मूल-सोभा सोभित आंगन रु, हय हींसत हयसार । चारन बारन गुजरत, बिन दीने संसार ॥ ६॥