पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/४४०

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सोरहवा प्रभाव सुबरन बरन सु सुबरननि रचित रुचिर रुचि लीन । तन मन प्रगट प्रवीन मति, नवरंग राय प्रबीन ॥ ७५ ।। मोट-इस रचना को चरण गुप्त इस लिये कहा गया है कि श्रागे लिखे चित्र में देखने से इसका अंतिम चरण "नवरंग राय प्रवीन" गुप्त हो जाता है पर १, २, ३, श्रादि अंकों से सूचित अक्षरों को जोड़ कर पढ़ने से प्रगट हो जाला है। पहले दोहे में नवरंग राय की प्रशंसा है, दूसरे में प्रवीनराय की प्रशंसा है। शब्दार्थ-रस-प्रेम प्रीति । विरसम्मान ! सरसबढ़ कर । सरस = रसीली। भेवभेद । बय = बैस । सु-सुन्द। सुवरणनि रचित सोने से बने आभूषण ! रुचि= कांति । भावार्थ नवरंग राय का अंग प्रेम और मान दोनों समयों में शोभित ही रहता है । रसीले रस भेदों में ( काल क्रीड़ा में) अति रसीली है। नाचने में पग पग पर चमक दमक बढ़ती है, नवीन बैस है और मन तथा मति देवता में लगी रहती है। (प्रवीन राय कैसी है कि ) सोने का सा सुन्दर रंग है, सोने के बने हुए सुन्दर श्राभूषण उसकी कांति में लुप्त हो जाते हैं। उसके तन से और मन से मति की प्रवीणता प्रगट होती है।