पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०६

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चतुर्थ सर्ग

पद्धरी छन्द

द्वै घटिका रजनी रही जानि।
तजि सेज संग आलस्य ग्लानि॥१॥
अक्रूर उठे अतिसय सकार।
करि नित्य कृत्य निज सब प्रकार॥२॥
निज सारथीहिं आदेश कीन।
तैयार करहु रथ हे प्रवीन॥३॥
आये जब देखे नन्द द्वार।
जिमि रही भीर तहँ अति अपार॥४॥
उपहार भार गोपाल वृन्द।
लीने सिर देवै हित नरिन्द॥५॥
बकि रहे सहस नारीन संग।
ह्वै मतवारे ज्यों पिये भंग॥६॥
कोउ कहत मन्द मति नन्दराय।
बौरो बनि तू किमि गयो हाय॥७॥
पठवत मथुरा घन स्याम राम।
अति कुटिल कसाई कंसधाम॥८॥
वृज जिअत सकल जा मुख निहारि।
जो देत सहस सौ विघ्न टारि॥९॥
जो है वृज को सब विधि अधार।
हम सब को रच्छा करन हार॥१०॥
हम कबहुँ न दै हैं ताहि जान।
जब लौं या घट मैं बसत प्रान॥११॥