पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०८

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बहु गई जहाँ रथ रह्यो ठाढ।
लै रश्मि करन सो गही गाढ॥२६॥
प्रति आरा चक्रन गहे हॉथ।
बहु नारि रही निज पटकि माथ॥२७॥
सौ २ सोई मग सकल रोकि।
चिल्लात विकल हिय करन ठोकि॥२८॥
कर लै विष कितनी कहत टेरि।
मरि है हम ता छन गमन हेरि॥२९॥
बहु लै कर गर दीने कटार।
कहि रही अरे यशुदा कुमार॥३०॥
नहि देहुँ अकेली तोहिं जान।
पठवहुँगी मै तुम सग प्रान॥३१॥
करुणामय क्रन्दन सुनत नारि।
सँग दृश्य भयकर यो निहारि॥३२॥
अति उत्तेजित हम ज्ञान होय।
मुख आसुन ते निज धोय रोय॥३३॥
बोल्यो अधीर ह्वै एक गोप।
सहि सक्यो न कैसेहु दुसह कोप॥३४॥
सोचत मोचत दृग दोउ नीर।
गहि मौन मनहि मन कै अधीर॥३५॥
उठि कह्यो अरे अक्रूर कूर।
तू भाग यहाँ ते तुरत दूर॥३६॥
नहि फोरौ मै तेरो कपार।
हम सब कह लै तू झोकि भार॥३७॥
पै जान न देही उतै श्याम।
कोउ विधि कैसेहू कस धाम॥३८॥
तू आयो वृज को प्रान लेन।
सहसन मनुजन दुख दुसह देन॥३९॥