पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०९

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हे खल नहिं लागत तोहि लाज।
इन बालन सौंपत कंस राज॥४०॥
कोउ देत बधिक कर धरि मराल।
सौंपत सिंहहि कोउ सुरभि बाल॥४१॥
जा भाजि वेग ह्वै रथ सवार।
क्यों लेत पाप को सीस भार॥४२॥
सुनि सकुचानो अक्रूर बैन।
समुझयो साँचो यह उचित हैन॥४३॥
है निज कुल कमल पतंग स्याम।
तिहि देबो कंस नृशंस काम॥४४॥
सधी सुनि वृज वासीन बात।
अक्रूर कह्यो हम अबहिं जात॥४५॥
है तुमरी साचहुँ उचित सीख।
हम कहूँ खायहैं माँगि भीख॥४६॥
पै लै नहिं जैहें श्याम राम।
ह्वै सठ पहुँचावन कंस धाम॥४७॥
सुनि रुचत उचित अक्रूर बेन।
वृज वासी लगे आसीस दैन॥४८॥
तू धन्य सुहृद हित करन हार।
निष्कपट न्यायरत अति उदार॥४९॥
निज नाम अर्थ तू सत्य कीन।
हम सब कहँ जीवन दान दीन॥५०॥
जो इन कहँ मारन चहत नीच।
मुख दिखलहौं किमि जगत वीच॥५१॥
कुल बालक घालक जग कहाय।
धिक जीवन सुख संसार पाय॥५२॥
जगदीस करै तेरौ सहाय।
कहि रहे सोर सब कोउ मचाय॥५३॥