पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११०

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बकि रहे कहा नहिं परै जानि।
मन मैं विन कारन माख मानि॥६८॥
गोचारन कोउ न गयो ग्वाल।
बोले विचित्र लखि परै हाल॥६९॥
कहुँ बजत मथानी नहिं सुनात।
दधि बेचन कोउ गोपी न जात॥७०॥
बृज त्यागी न हम हैं कछू जात।
कैसी विचित्र तुम कहत बात॥७१॥
वृन्दाबन है मम नित निवास।
या मैं राखहु दढ़ विस्वास॥७२॥
तुमरी हम पै जिहि भाँति प्रीति।
तुमहूँ हम कहँ प्रिय तिही रीति॥७३॥
कैसे तुम कहँ हम सकहिं त्यागि।
सोचहु भ्रम निद्रा तनक त्यागि॥७४॥
सब सों अति निकट रहैं सदैव।
तब विलखत हौ तुम क्यों वृथैव॥७५॥
अब जाहु करहु निज काम धाम।
मन सों भुलाय भ्रमशोक नाम॥७६॥
गंभीर गिरा सुनि या प्रकार।
नहिं सके समुझि अर्थहिं अपार॥७७॥
अति ह्वै प्रसन्न जसुदा कुमार।
सब लगे असीसन बार बार॥७८॥
अकर निकट पुनि स्याम जाय।
बोले प्रनाम करि सीस नाय॥७९॥
निरख्यो तुम इनको चचा हाल।
बेहाल भये हैं सकल ग्वाल॥८०॥
मथुरा दिसि गवनहु बेगि आप।
इत सुनहु न इनके वृथा शाप॥८१॥