पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११२

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मैं कही न तोसों तबै बीर।
नाहक ही हो जनि तू अधीर॥९६॥
तजि जाय सकै कब नन्दलाल।
हम सबन कहूँ वह तीन काल॥९७॥
मेरे सनेह की सहज डोर।
बँधि रह्यो आज लौं चित्त चोर॥९८॥
चाहत बनिबो करि नयो ख्याल।
धूरतताई करि नन्दलाल॥९९॥
यह नयो निकाल्यो सोचि ढंग।
चलिबो मथुरा अक्रूर संग॥१०॥
सुनि जाहि विकल ह्वै जुरे आनि।
नर नारि इतै तिहि साँच मानि॥१०१॥
खटकत मेरो मन रह्यो बीर।
यद्यपि डरपी कछु ह्वै अधीर॥१०२॥
पै ही सोचत जो भयो सोय।
वह दियो सहज सब ज्ञान खोय॥१०३॥
अब अधिक बढ़े है मानि मान।
हौंहीं वृज जन जुवतीन प्रान॥१०४॥
यों कहत चलीं सब विविध बात।
अपने २ गृह ओर जात॥१०५॥
पै तऊ किती रुकि रहीं बीच।
जो फँसी रहीं अति प्रेम कीच॥१०६॥
लखि सूनो थल से रही बैठि।
लागी कहिबे भ्रू ऐंठि ऐंठि॥१०७॥
राधा बोलीं ललिता सुनाय।
सखि मेरो हिय तिहि नहिं पत्याय॥१०८॥
वह कहै और कछु करै और।
नाहिन वाको कछु, ठीक ठौर॥१०९॥