पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११३

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वह चहै अबहिं कहुँ भाजि जाय।
वासों कोउ की कछु नहिं बसाय॥११०॥
मैं करि न सकौं वाकी प्रतीति।
यह जरै निगोड़ी निठुर प्रीति॥१११॥
हँसि कही विसाखा ठीक बैन।
या मैं संसय रंचकहु है न॥११२॥
वाकी हैं समुझति आय चाल।
है जैसो लङ्गर नन्दलाल॥११३॥
कहि चन्द्रावली सखी सयानि।
तुम सकी न अब लौं ताहि जानि॥११४॥
स्वामिनी दृगन की चहत चोट।
वह यदपि गयो बनि अधिक खोट॥११५॥
पै तऊ रहत हाजिर हुजूर।
मुसुकान मजूरी को मजूर॥११६॥
रुख बदलत हा हा खाय आय।
लागत चरनन मानत मनाय॥११७॥
राधा सुनि चन्द्रावली बैन।
वोली अस कहिबो उचित है न॥११८॥
अपनी सी जानहु सकल बात।
वैसीहि दसा सब दिसि दिखात॥११९॥
तेरो ही वह बिन मोल दास।
तो बिन लेतो रहतो उसास॥१२०॥
मिलि यासों बूझी नेक याहि।
चाहत चित सों वह निठुर काहि॥१२१॥
दे सीख वाहि दृग दया हेरि।
ऐसी लीला नहिं करै फेरि॥१२२॥
जासों सब ब्याकुल होय होय।
तरपै नर नारी रोय रोय॥१२३॥