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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११५

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-८८-

विश्वास करावै सौंह खाय।
वैसहीं कर पुनि दाव पाय॥१३८॥
लखि दूजी तिय इक सों सनेह।
दिखराय छुआवै आनि देह॥१३९॥
वदनाम करै तिय नित अनेक।
नहिं राखै कोउ मैं प्रेम नेक॥१४०॥
लूट दधि माखन पै न खाय।
देतो वज बालक गन खवाय॥१४१॥
वाको चरित्र समुझो न जात।
फल या मैं वाहि कहा लखात॥१४२॥
तब बोली कोकिल बैनि बैन।
या मैं सखि संसय नेक हैन॥१४३॥
वह चहत सबै हमसों रिसाय।
जासों न प्रीति कोइ सकै लाय॥१४४॥
यह है न जसोदा जन्यो बाल।
सब कहत बादि तिहि नंदलाल॥१४५॥
देवता कोऊ यह मुहि जनाय।
वृज आय रह्यो लीला लखाय॥१४६॥
इत कियो काज उन आय जौन।
हरि तजि सकिहै करि तिन्हे कौन॥१४७॥
वाकी हैं सबै विचित्र बात।
कारन जिनको नहि कछु जनात॥१४८॥
बोली सरोजनी भटू आज।
मिलि चलौ करौ सब यहै काज॥१४९॥
गोचारन हित जब इतै स्याम।
आवै तब गहि तिहि कुंज धाम॥१५०॥
ल्याओ अरु पूछौ सकल हाल।
बिन कहे न छोड़ो नन्दलाल॥१५१॥