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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११९

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जो कहो कृष्ण सँग चलन रात।
नटि गये होत ही वे प्रभात॥१९४॥
वृजवासी नर नारी विहाल।
लखि भये दयाबस नंदलाल॥१९५॥
पै का वे इहि न सके विचारि।
सुनतहिं जो दीनो बचन हारि॥१९६॥
मथुरा चलिबे मो संग प्रभात।
करि सके न वे कहि सहज बात॥१९७॥
सो का वे अब कोऊ प्रकार।
जैहैं मथुरा वे कंस द्वार॥१९८॥
तौ बने मूढ़ हम विनहिं काज।
तजि देस कोप लहि कंसराज॥१९९॥
या विध संसय विसमय अनेक।
परि सक्यो न करि वह तऊ नेक॥२००॥
निश्चय अपनो कर्तब्य काज।
चिंता समुद्र को बनि जहाज॥२०१॥
उत्पात बात लखि डगमगात।
चलि आवत इत पुनि उतै जात॥२०२॥
यों सोचत ह्वै व्याकुल महान।
अक्रूर मुंदि दृग खोय ज्ञान॥२०३॥
चलिबो दूजे मग मन विचारि।
खोल्यो जब दृग चौंक्यो निहारि॥२०४॥
सँग राम कृष्ण रथ पास आय।
बोले प्रणाम करि मुसकुराय॥२०५॥
तुम खड़े तात इत कहहु काह।
वादिहि खोटी क्यों करत राह॥२०६॥
चलिये जित चलिबो तुमहि होय।
चित के सिगरे भ्रम जाल खोय॥२०७॥