अक्रूर सक्यो कहि कछू नाहिं।
समुझयो देखहुँ तौ स्वप्न नाहिं॥२०८॥
कब पहुँचे इत बे दोऊ भाय।
चलिये इन कहँ अब कित लियाय॥२०९॥
जौ मथुरा दिसि ये चहैं जान।
तौ सकल वृत्त को आख्यान॥२१०॥
करि दैबो इन सों सब प्रकार।
है मम कर्तव्य विना विचार॥२११॥
यों सोचि कहयो अक्रूर बात।
चलिबो तुम चाहो कितै तात॥२१२॥
आओ बैठो रथ दोउ भाय।
करतब तब निश्चय कियो जाय॥२१३॥
कल संध्या तुम सो कियो बात।
कछु संछेपहि हम सकुच खात॥२१४॥
समुझयो पुनि अवसर उचित पाय।
कहिहैं सब शष तुमहि बुझाय॥२१५॥
जानहु नहिं तुम कछु जासु भेद।
उत जाय तुम्हें कछु जासु भेद॥२१६॥
तासों सब देहुँ तुमहि बताय।
कै सावधान तुम दोऊ भाय॥२१७॥
सुनि लेहु कहत जिहि मैं सखेद।
मथुरेश महीप रहस्य भेद॥२१८॥
मन मैं तुमसों बहु बुरो मानि।
चाहत छल बल सों उतै आनि॥२१९॥
तुम नासन कोऊ भाँति प्रान।
धनुयज्ञ आदि उत्सव महान॥२२०॥
जा हित साज्यो उन बहु प्रकार।
तुम दोउन ल्यावन काज भार॥२२१॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२०
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