पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२२

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सो चलहु आप रथ उत बढ़ाय।
देखहि तो चलि कस कंस राय॥२३६॥
जाकी कुनीति जग जन कँपाय।
रव त्राहि त्राहि दीनो मचाय॥२३७॥
सुनि कह्यो बढ़ावहु रथ प्रवीन।
अक्रूर हरषि आदेस दीन॥२३८॥
सारथी हाँकि हय रथ बढ़ाय।
तब चल्यो पवन गति सों उड़ाय॥२३९॥
गवनत जिहि मग वह रथ महान।
तरु देत मनहु सम्मान दान॥२४०॥
झरि खिले सुमन सब एक बार।
वृज त्यागि चलत दोउ नंदकुमार॥२४१॥
सींचत वीथी मकरन्द धार।
माधव वियोग दुख धौं अपार॥२४२॥
बरसावत आँसुन रहे रोय।
वृन्दावन शोभा सकल खोय॥२४३॥
शीतल समीर लै सब सुवास।
लै चल्यो रहन जनु स्याम पास॥२४४॥
खग चले सकल नभ छाय संग।
घन घिरी घटा जनु रँग विरंग॥२४५॥
सब चले छिपाये धूप जात।
दुहुँ ओर सिखी दौरत सुहात॥२४६॥
दौरी मृग माला ह्वै अधीर।
ढारत विशाल दृग भरे नीर॥२४७॥
जे फिरी देखि वन होत अन्त।
माधव वियोग दुख दहि दुरन्त॥२४८॥
रथ पहुँच्यो मथुरा निकट आय।
गोपालन सँग अँह नन्दराय॥२४९॥