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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२१

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दै मों सिर पठयो इत तात।
यद्यपि न रुची यह मोहि बात॥२२२॥
पर नृप शासन सों का बसाय।
आयो इत चित चिन्ता छिपाय॥२२३॥
भल मन विचारि तुम सकल बात।
सो करो उचित जो मन लखात॥२२४॥
चाहो जित गवनहु तित बहोरि।
नहिं मोहि लगइयो कछू खोरि॥२२५॥
उन कीन्यो वन्दी उग्रसेन।
अब चाहत उनको प्रान लेन॥२२६॥
वसुदेव देवकी दुहुन फेरि।
कारागृह राख्यो कंस घेरि॥२२७॥
जो अहैं तुम्हारे बाप माय।
सहि रहे दुःख जे विविध भाय॥२२८॥
मैं हूँ यदुवंशी तासु भ्रात।
पै करूँ कहा कछु नहिं बसात॥२२९॥
तुव जननी जसुमति अहै नाहिं।
नहिं नन्द महर त्यों पिता आहि॥२३०॥
विस्तृत है वाकी कथा तात।
संक्षेप कही हम तत्व बात॥२३१॥
सुनि बोल्यो माधव मुस्कराय।
नहिं कारन चिन्ता कछु लखाय॥२३२॥
विधि जा कर जा विधि लिख्यो अन्त।
तिहि कहैं अटल श्रुति ज्ञानवन्त॥२३३॥
जिहि विधि जे होनो जवन काज।
तब तैसोई सब जुरत साज॥२३४॥
विधि को विधान अति अटल जानि।
नहि पंडित जन मन करत ग्लानि॥२३५॥