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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२४

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यों कहि उतरे राम स्याम रथ त्यागि कै।
हाँक्यो रथ अक्रूर चले हयभागि कै॥२६४॥
ग्वाल बाल मिलि दुहुन अनन्दत होय के।
खान पान करि निसा बितायो सोइ कै॥२६५॥

इति श्री गोविन्द विनोद श्री कृष्ण वृजपरित्याग
नाम चतुर्थ सर्ग समाप्तः


अथ पंचम सर्ग

गुनि समय ऊषा उठे सब गोपाल गन हरषाय के।
लागे जुहारन नन्द कहँ सब देव पितर मनाय के॥
बोले विलखि तब नन्द शिव कल्यान हम सब को करें।
सँग कृष्ण अरु बलदेव के सकुशल चलें पुनिरपि धरै॥१॥
कोउ कहत नाहीं राम स्यामहि जीतिबे वारो कोऊ।
मानत बुरो है कंस पै लखि इन्हें सिखि जैहैं सोऊ॥
कोउ कहत मन चाहत अबै इत सों घरै इन फेरिये।
तौ नटत कोउ कहि क्यों न कारन कोऊ ऐसो हेरिये॥२॥
लखि भोर नन्द किसोर जागे ग्वाल बालन टेरि के।
सब चले बन की ओर सारे मचाय स्यामहि धेरि कै॥
करि नित्य कृत्य निवृत्त सब जमुना हू पहुँचे जाय कै।
अरचन लगे निज इष्ट देवहिं गोप सकल मनाय के॥३॥
घनस्याम अरु बलराम सँग मिलि ग्वालबाल अन्हाय कै।
जल केलि विविध प्रकार भल सब करि रहे मन भाय कै॥
कोउ तोरि पुरइन पत्र दै सिर छत्र नृप बनि राजहीं।
कोउ कुमुदिनी के कुसुम कुंडल बनय कानन छाजहीं॥४॥
कोऊ विशाल मृणाल के केयूर वलय बनावते।
पहिने करन अरु भुजन पर सहगर्व सबन दिखावते॥