कोउ कमल झूमक कान के बहु भाँति आभूषन बनय।
निज अंग सुघर सँवारते मन वारते को छवि चितय॥५॥
कोऊ सनाल सरोज कँह अजतन सहित उपारहीं।
ठाने परस्पर युद्ध लीला एक एकन मारहीं।
कोऊ उछालत नीर कोउ पिचकारि कर की मारते।
कोऊ न सहि जलधार भाजै तीर पर जब हारते॥६॥
बूड़त कोऊ तैरत कोऊ कोउ छुअत कोऊ जाय कै।
पकरत कोऊ बूड़ो कोऊ कहि चोर चोर चिलाय कै॥
कोऊ लरत लत्ती चलावत कोउ काहू मारतो।
कोऊ कोऊ के कान्ह चढ़ि कूदत कोऊ है हारतो॥७॥
या भाँति रत जल केलि मैं बालकन लखि नँदराय नै।
यों कहो गोपन सों चलतु लै संग सकल उपायनै॥
हम सब प्रथम चलि राजगृह की लखि दसा सब आवहीं।
तब पलटि के इन बालकन कँह संग लै उत जावहीं॥८॥
हे कृष्ण हे बलराम तुम सब इतै रहियो तहाँ लौं।
हम सब वहाँ की भीर भार विलोकि पलटें जहाँ लौं।
यों कहि सबन बालकन नन्द चले सकल गोपाल लै।
माधव कह्यो मुसक्याय सबसों सुनहु अब तुम ध्यान दै॥९॥
आवहु सखा हमहूँ सबै उत चलैं इत रहिबो वृथा।
उत्सव परम रमनीय देखें सुनि रहे जाकी कथा॥
यों कहि परे हरि निकरि जमुना सों सहित बालकन के।
भूषन वसन सों कै सजित हित चले उत्सव लखन के॥१०॥
मनसुखा, श्रीदामा, सुबल, अरु अंश, अर्जुन संग में।
ओजस्वि, वृषभ, विशाल, देवप्रस्थ, भरे उमंग में।
मिलि भद्रसेन, वरुथय, स्तोकादि, बाँधे मंडली।
सब ग्वाल बालन की चली मन में मचावत रँगरली॥११॥
भारी लठा कोऊ लिये कोउ लकुट निज कर म धरे।
कोउ पाग टेढ़ी बांधि सिर पर सोहनी डारे गरे॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२५
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