पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२६

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माला बिबिध फल फूल की ओढ़े दुपट्टा कोउ चले।
पहिरे झगा कटि काछनी काछे चले सोभत भले॥१२॥
लागे लखन मथुरापुरी छवि भरे भूरि उमंग मैं।
घनस्याम अरु बलराम लै सँग ग्वाल बालन संग मैं॥
मधु दैत्य नै जा कँह बसायो रुचिर अपने नाम सों।
शत्रुघ्न नै जा कँह सजायो शिल्प कारन काम सों॥१३॥
जिहि भोज राजन ने बनाई राजधानी आपनी।
जाको बनो नृप कंसराय अहै सबै विधि सों धनी॥
प्राकार जाके चहँ दिसि अति पुष्ट उच्च विराजतो।
आकास चुम्बित गोपुरन तोरन अनकन धारतो॥१४॥
सब ललित प्रस्थर मय रचित औ खचित विविध प्रकार के।
बहु बेल बूटन मूरतिन सों सजित सहित सुधार के॥
कंकर पिटे पथ स्वच्छ सिंचित नीर चौड़े राजते।
जाके दुहूँ पाश्व पँचमहले महल छबि छाजते॥१५॥
सबहीं सुधा लोपित सबन मैं बसत नर नारी घने।
सबहीं लखात समृद्धिवान बलिष्ट सुघर सुहावने॥
सब शीलवान सुजान बर विद्वान जन मन मोहते।
सुभ स्वर्णमय भूषन जटित नवरत्न सब अंग सोहते॥१६॥
सब के बसन कौशेय रंग बिरंग वय अनसारहीं।
जरकसी सूईकार के बहु भाँति तन पै धारहीं।
सब के ललाटन तिलक माला सुमन सब के गर परी।
मुख पान सब के म्यान मैं असि झूलती कटि मैं भरी॥१७॥
सब के सदन के सहन में तरु सुमन विकसित सोहते।
सब द्वार वन्दनवार कदली कलस युत मन मोहते॥
सब की अटारिन पै ध्वजा फहरै पताका बात सों।
सब के घरन में राग रंग सुनात आज प्रभात सों॥१८॥
बहु भाँति के बाजे बजै मचि रहयो मंगल मोद सो।
जे कंस अत्याचार सों हे गये भूलि विनोद सो॥