सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-१०४-

सब संख मर्कत शिला बिरचित भवन भिन्न प्रकार के।
चहुँ ओर चित्रित विविधमनिगन जटित सहित सुधार के॥४७॥
जिन पैं पताका फरहरै बरकार चोबी काम की।
सोही सुनहरी मखमली बहु रंग अरु बहु दाम की॥
जिनके दरन सुवरन किवारे जड़े दरपन दरसते।
सोहत रजत चौखटन बाजुन मध्य मन आकरसते॥४८॥
जिन पर परे परदे सुरूंग जरकसी सुन्दर साल के।
कसि रहे रेसम रज्जु तोरन सजे मुक्ता माल के॥
जिन चहूँ ओरन बीच अजिर महान बिस्तृत सोहतो।
जा मध्य मंडप उच्च अति सुविशाल बनि मन मोहतो॥४९॥
जिन बर मदन के खम्भ रूपे के ढले सुविशाल हैं।
कंचन लता जिन पर चढ़ी मनिमय मुकुल जुत जाल हैं।
जिनकी बनी अवनी अस्फटिक मनि पटरीन सों।
त्यों अन्य मनिमय जटित शोभित चित्र पसु पंछीन सों॥५०॥
जिहि जात निरखत हिये हरखत सखन के संग स्याम हैं।
चहुँ ओर स्वागत सोर नारी नर करत अभिराम हैं।
सारे नगर के सकल टोले हैं बने मन भावने।
राजत अमल थल सकल भवन सबै सुसज्ज सुहावने॥५१॥
हैं हाट सब सम अवलि मैं इक चाल भवनन सों बनी।
संसार की सब वस्तु उत्तम रहत जित संचित घनी॥
अँह करत क्रम बिक्रम रहत व्यापारि गन लै धन जुरे।
दौरत बया दलाल कीन्हे लाल मुख बीरे हुरे॥५२॥
ह्वै रही बोरे बंदियाँ कहुँ ढुलै तुलि तुलि माल हैं।
खुलि रहे तोड़े गिनत रुपये लोग होय निहाल हैं।
कतहूँ चितेरे स्वर्णकार दुकान कहुँ जड़िये धरे।
कहुँ भिषक पंसारी अलेमारीन बहु औषधि भरे॥५३॥
बढ़ई लोहार कहूँ कसेरे शस्त्र विक्रेता कहूँ।
बेंचत अनोखी वस्तु जस नहिं लख्यो कोऊ कैसहूँ॥