पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३२

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गंधी कहूँ माली कहूँ फल विविध बेचन हार हैं।
बैठी अटारिन वारि नारि कहूँ किये सिंगार हैं॥५४॥
बहु दीन भिक्षा माँगते त्यों बिविध याचक जाँचते।
कोउ निज शरीरहिं कष्ट दै बिन लिये कछु नहिं मानते॥
गावत बजावत तालियाँ कहुँ हीजड़े मेहरे नचैं।
अरि जाहिं जापै वे बिना पैसे दिये कैसे बचें॥५५॥
जिहि ओर सों जाते चले श्री कृष्ण औ बलराम हैं।
सब दौरि कै इनकी लखें छबि छाड़ि निज गृह काम हैं।
कोउ कहैं ये वसुदेव सुत आये हमारे भाग सों।
जिन बाट जोहत रहे हम बहु दिनन अति अनुराग सों॥५६॥
जिन आगमन पूरबहि तें इनके सबै दुख बहि गये।
जे रहे अत्याचारि ते संकति सहमि से रहि गये।
ह्वै गयो सुख संचार विनहि प्रयास चहुँ चित सोचिये।
ताके चरन अरचन करन हित नैन नीरहिं मोचिये॥५७॥
स्वागत करत वाको सबै मिलि वेगि सँग ह्वै लीजिये।
तन मन सकल धन देखि कै वापै निछावर कीजिये।
दिननाथ दर्शन प्रथम ज्यों तमराशि अरुनोदय हरै।
वर्षागमन पूरब यथा वहि बात पूरब सुख भरै॥५८॥
हरि ताप ग्रीषम को बतावै भयो ताको अंत है।
पतझाड़ के पीछे नवल दल यथा देत वसंत है।
त्यों कंस के विध्वंस पूरब ही हरयो दुख रासि है।
आनन्द की आभा रही मथुरापुरी परकासि है॥५९॥
उगिल्यो अमिति छित अन्न अबहीं सुखी सब जन ह्वै गये।
सब उद्यमन व्यापार मैं बहु लाभ सब लोगन लये॥
जै देवकी सुत जयति जय वसुदेव सून महाबली।
जाके दया दृग दीठि सों इतकी सबै बाधा टली॥६०॥
जिन मैं टंगे वर झाड़ आदिक साज सोभा दै रहे।