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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१५३

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यवन नृपति खल, चोर, दुष्ट, निज ही साचहु सुखदानी।
बद्री नाथ सुगाय सकै क्यो तुअ यस अकथ कहानी॥१॥
धनि धनि या जामहु को जानहु।
सुनि अभिषेक राज राजेश्वरिचित्तमुद मंगल सानहु।
भारथ सुदिन बीज या छनसो जामो यह मन आनहु॥
धनि यह मास धन्य यह औसर गुनि चित्त हित पहिचानहु।
बद्रीनाथ भाग्य अपनी निज धन्य धन्य करि मानहु॥२॥

 

नोट-उपर्युक्त कवितायें कवि वचन सुधा मे १ जनवरी १८७७ के 'राजराजेश्वरी की जय' शीर्षस्थ विशेष अक में भारतेन्दु बाबू द्वारा प्रकाशित की गई थी जिसको प्रथम भाग मे संकलित नहीं कर सका था।

माघ कृष्ण २ स० १९३३